Manuscript Number : GISRRJ120339
श्रीमद्भगवद्गीता में प्रतिपादित कर्म अकर्म विवेचन
Authors(1) :-मंजीत कुमार वर्मा भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में जैसा बतलाया है उसके अनुसार कर्म करना संभव है तथा आवश्यक भी है। इसके विपरीत कर्मोें को विकर्म कहते हैं इसी तरह कर्म न करना अकर्म कहलाता है। इन कर्मों को करने से क्या होता है क्या नहीं होता है यह बात शास्त्र के द्वारा ही समझना संभव है। कर्म के स्पष्ट दिखाई देने वाले लौकिक परिणम चित्तशुद्वि और इसी तरह पुण्य आदि अलौकिक परिणाम में फर्क है। अतः कर्म की गति गहन (गूढ़) है। किया जाने वाला कर्म यदि निष्काम बुद्वि से किया जाए तो उसका जीव को बन्धन नहीं होता है। अतः ऐसे कर्म करने पश्चात् भी न करने के समान होता है।
मंजीत कुमार वर्मा श्रीकृष्ण, श्रीमद्भगवद्गीता, कर्म, अकर्म, अर्जुन।
Publication Details Published in : Volume 4 | Issue 1 | January-February 2021 Article Preview
शोधार्थी, बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय, झाॅसी, उत्तर प्रदेश, भारत।
Date of Publication : 2021-02-28
License: This work is licensed under a Creative Commons Attribution 4.0 International License.
Page(s) : 58-60
Manuscript Number : GISRRJ120339
Publisher : Technoscience Academy
URL : https://gisrrj.com/GISRRJ120339