Manuscript Number : GISRRJ181116
वैशेषिक दर्शन में समवाय और उसके विषय में श्रीवल्लभाचार्य का दृष्टिकोण
Authors(1) :-डाॅ0 उधम मौर्य समवाय संयोग के समान ही एक सम्बन्ध है। क्योंकि यह भी विशोष्यविशोषण भाव का नियामक है। मर्हिष कणाद का मत है कि कारण और कार्य में जो सम्बन्ध है, वही समवाय है। आचार्य श्रीवल्लभ का मत है कि जो विशिाष्ट व्यवहार भावमात्रविषयक होता है तथा अबाधित होता है, वह सम्बन्ध-नियत होता है। गोत्व जाति का समवाय सम्बन्ध रहने ही पिण्ड विशोष को गो शब्द से व्यहृत करते हैं। गोत्व का यह वैशिाष्ट्य ही समवाय की नियमन सत् के द्वारा गो, व्यक्तियों में गोत्व के अवभास को उत्पन्न करता हैं। तात्पर्य यह है कि समवाय यद्यपि एक है फिर भी अपने विशोष में ही विशोष समय में रहने के स्वभाव के कारण जिस समय जहाँ गोत्व की सत्ता रहती है, वही गौः इस प्रतीति को उत्पन्न करता है अर्थात् जहाँ जिस अधिकरण में गोत्व का अत्यन्ताभाव है वहाँ ’’अयं गौः’’ इस प्रकार की प्रतीति को वह उत्पन्न नहीं करता। समवाय में जो अधिकरण विशोष में, समय विशोष गोत्व को अवभासित करने की शक्ति है, वही समवाय की गोत्व व्यंजिका शक्ति है।
डाॅ0 उधम मौर्य द्विपृथकत्व, विशोषणता और विशोष्यता, ’स्वात्मगतसंवेदनाभावाच्च’, आश्रयीभूत। Publication Details Published in : Volume 1 | Issue 1 | November-December 2018 Article Preview
भूतपूर्व शोधछात्र, दर्शन एवं धर्म विभाग, कला संकाय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी,उत्तर प्रदेश, भारत।
Date of Publication : 2018-12-30
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Page(s) : 80-84
Manuscript Number : GISRRJ181116
Publisher : Technoscience Academy
URL : https://gisrrj.com/GISRRJ181116