संस्कृत काव्य का उद्भव एवं विकास

Authors(1) :-डॉ. छगन लाल महोलिया

महाकाव्य सर्जन सम्बन्धी मानदण्डों के समालोचन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि महाकाव्य विद्या साहित्य का एक विशिष्ट सृजित स्वरूप है जिसके सृजन की प्रवृत्ति एक दीर्घकालीन परम्परा के रूप में विद्यमान रही है। महाकाव्यों की सर्जनपरम्परा में प्राय: सर्जनकर्त्ताओं की प्रवृत्ति, पात्र, घटना, परिस्थिति एवं स्वानुभवमूलक अभिप्रायों को सरलतापूर्वक पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करने की रही है। इसके कारण परम्परागत महाकाव्यों का प्रभाव पर्याप्त रूप मे 'समृद्धि को प्राप्त करता रहा है। वर्तमान में लोकभावना में हो रहे सामाजिक परिवर्तन के कारण महाकाव्यों के प्रति सामान्य जनमानस का रुझान न्यूनता की ओर बढ़ रहा है, अतः महाकाव्य के सर्जन में भी शिथिलता का समावेश दिखाई देता है । उसे वर्तमान युग के चिन्तनीय विषय के रूप में देखा जाना मेरी दृष्टि में सर्वाधिक उचित होगा ।

Authors and Affiliations

डॉ. छगन लाल महोलिया
सह आचार्य – संस्कृत, श्री रतनलाल कंवर लाल पाटनी , राजकीय स्नात्तकोत्तर महाविद्यालय, किशनगढ़, अजमेर।

संस्कृत‚ काव्य, उद्भव, विकास, साहित्य ।

  1. देवस्य पश्य काव्यं न ममार न जीर्यति (अथर्ववेद)
  2. उतः त्व पश्यन् (ऋ. 10/71/4), प्र पर्वतानां (ऋ. 3 / 33 / 1), द्वा सुपर्णा (ऋ.1/124/7) इत्यादि ।
  3. ऋग्वेद (10/177/2)
  4. वाक्यपदीय 1 / 12
  5. पाणिनीय शिक्षा-6
  6. वाक्यपदीय 1/84
  7. साहित्यदर्पण 3/3
  8. अथर्ववेद
  9. अथर्ववेद 15/6/11
  10. ऋग्वेद (8/32 / 1),
  11. ऋग्वेद (1/4/34, 8/2/38 )
  12. संस्कृत साहित्य का अभिनव इतिहास (डॉ. राधावल्लभ त्रिपाठी) पृ. 48
  13. ऋग्वेद (2/34/6, 9/6/42, 10/64/3)
  14. न्याय भाष्य (4 / 1 /61)
  15. निरुक्त अ. 1, पा. 2 / पृ. 34-35

Publication Details

Published in : Volume 2 | Issue 6 | November-December 2019
Date of Publication : 2019-12-30
License:  This work is licensed under a Creative Commons Attribution 4.0 International License.
Page(s) : 142-163
Manuscript Number : GISRRJ192711
Publisher : Technoscience Academy

ISSN : 2582-0095

Cite This Article :

डॉ. छगन लाल महोलिया, "संस्कृत काव्य का उद्भव एवं विकास", Gyanshauryam, International Scientific Refereed Research Journal (GISRRJ), ISSN : 2582-0095, Volume 2, Issue 6, pp.142-163, November-December.2019
URL : https://gisrrj.com/GISRRJ192711

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