Manuscript Number : GISRRJ20325
अविमृष्टविधेयांश दोष विमर्श: एक अनुशीलन
Authors(1) :-रागिनी शुक्ला परम्परा के गहनतम् अनुशीनल से यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि मानव की सर्जना में दोषों का रह जाना स्वाभाविक है कारण यह कि मनुष्य प्रायः अज्ञ है और उसकी मति अज्ञता रूपी भंवर से उतकर पूर्णप्रज्ञता के तट को प्राप्त करने में प्रायः कष्ट की अनुभूति करती है। ‘‘दोष’’ शब्द से अभिप्राय यहां पर काम क्रोधादिक षड् मानसिक दोषों से रहित काव्य दोषों पर विचार किया जा रहा है। दोष चाहे मानसिक हो अथवा काव्यगत् उनका परिहार्य अवश्य किया जाना चाहिये।
मनुष्य के कार्य व्यापार की भांति काव्य भी कवि का कार्य या व्यापार है । अतः उसका निर्दुष्ट होना परमावश्यक है । प्रायः सभी काव्यशास्त्रियों ने गुणों से पूर्व दोषों का विवेचन किया है । भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र में दोष का कोई लक्षण न देकर गुणों को दोषों का विपर्यय माना है - गुणाविपर्ययादेषा माधुर्योदार्य लक्षणा
रागिनी शुक्ला अविमृष्टविधेयांश‚ दोष‚ नाट्यशास्त्र‚ आचार्य मम्मट‚ भामह। Publication Details Published in : Volume 3 | Issue 2 | March-April 2020 Article Preview
शोधच्छात्रा, संस्कृत विभाग, दिल्लीविश्वविद्यालय,दिल्ली‚भारत।
Date of Publication : 2020-04-30
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Page(s) : 08-20
Manuscript Number : GISRRJ20325
Publisher : Technoscience Academy
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