Manuscript Number : GISRRJ213217
लोक कला की अविरल धारा
Authors(1) :-डाॅ. संतोष बिंद
'लोक कलाएँ बाह्य विश्रृंखलाओं को तोड़कर देशकाल वर्ग जाति व धर्म के घेरे में न बँधकर सार्वदेशिक एवं सार्वकालिक होती है। सार्वजनीन भावना की यह रसधारा किसी राष्ट्र तक सीमित नहीं रहती, अन्तर्राज्य व अन्र्तराष्ट्र की सभी प्रकार की आचार व सीमाओं को पार कर वह विश्व-मानव को एकसूत्र में पिरो देती है।
डाॅ. संतोष बिंद
लोक, कला, भारतीय, जीवन, भावना, वर्ग, धर्म, धारा। Publication Details Published in : Volume 4 | Issue 2 | March-April 2021 Article Preview
प्रवक्ता, राजकीय बालिका इंटर काॅलेज, हुसैनगंज, फतेहपुर, उत्तर प्रदेश, भारत।
Date of Publication : 2021-04-30
License: This work is licensed under a Creative Commons Attribution 4.0 International License.
Page(s) : 138-143
Manuscript Number : GISRRJ213217
Publisher : Technoscience Academy
URL : https://gisrrj.com/GISRRJ213217