अभिनवगुप्त और कबीर के दर्शन में तुलनात्मक भक्ति-विमर्श

Authors(1) :-रवीन्द्र कुमार पंथ

काश्मीर शैवदर्शन और कबीर दर्शन में भक्ति की अद्वैतता स्पष्ट रूप में दृष्टिगोचर होती है। अभिनवगुप्त ने भक्ति की जिस धारा का कथन किया वैसा ही कबीर भी करते दृष्टिगोचर होते हैं। शैवदर्शन भक्ति तत्त्व को भी दार्शनिक दृष्टि देनें मंे सफल है यद्यपि यह स्वीकारा गया है कि भक्ति एक संवेगात्म अनुभूति है, दार्शनिक नही, तथापि यह दार्शनिक लक्ष्यों को स्वीकार कर ही प्रवृत्त होती है। इसलिए इसे अंशतः दार्शनिक भी कहा जा सकता है। कबीर दर्शन में तो भक्ति ही ज्ञान व योग से समन्वित होने के कारण दार्शनिक ही है। इसलिए कबीर भी भक्ति का प्रतिपादन दोनों ही रूप में करते हैं- संवेगात्मक अथवा रागात्मक अनुभूति और दार्शनिक अनुभूति। अतः यह कहा जा सकता है भक्ति विषयक विवेचन में कबीर को अभिनवगुप्त के निकट पाया जाता है जो भारतीय परंपरा में ज्ञान की क्रमबद्धता को विवेचित करता है।

Authors and Affiliations

रवीन्द्र कुमार पंथ
शोधच्छात्र, संस्कृत-विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, एवं सहा. प्राध्यापक (संस्कृत) पं. जे.एल. एन. महाविद्यालय बांदा

अभिनवगुप्त, कबीर, दर्शन, भक्ति,शैवदर्शन, अनुभति,भारतीय।

  1. शब्दकल्पदु्रम भा. 3 पृ. 463-464, वाचस्पत्यम् भा. 6 पृ. 4625-4628
  2. स्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ। तस्यैते कथिता ह्यर्था प्रकाशन्ते महात्मनः । श्वे. उप. 6/23
  3. श्रद्धावान लभते ज्ञानम् .........। श्रीमद्भागवतगीता
  4. ज्ञानस्य परमा भूमिः योगस्य परमा दशा। त्वद्भक्तिर्या विभो कर्हि पूर्णा में स्यात् तदर्शिता।। शिवस्तोत्रावली- 9/9
  5. सा (भक्तिः) परानुरक्तिरीश्वरे । शाण्डिल्यसूत्र-2, सा त्वस्मिन् परमप्रेमरूपा । नारदभक्तिसूत्र- 2
  6. अहेतुक्यव्यवहिता या भक्तिः पुरूषोत्तमे। भागवतपुराण- 3/29/12
  7. महात्म्य ज्ञान पूर्वस्तु सुदृढ़ सर्वतोधिकाः। स्नेहाभक्तिरिति प्रोक्तस्वयासु कीर्तनान्यथा।। महाभारत तात्पर्य निर्णय- 1/86/107
  8. योगसूत्र-2/7
  9. शब्दकल्पदु्रम भा. 3 पृ. 463-464
  10. विशिष्टाद्वैतकोश पृ. 65
  11. श्रीभगवद्भक्तिरसायन श्लो. 3
  12. गीता- 10/16
  13. प्रह्वता च उक्तरूपा भगवत्स्वरूपोत्कर्षदर्शनेन तदिच्छावशाविशीर्णशरीरप्राणादिकल्पितप्रमातृभावनासंस्कारात्मकशेषवृत्तिसंभवे व्युत्थानसमयसंभाव्यमानस्य शरीरादिगतप्रमातृताभिमानोद्रेकस्य अपासनेन मायाप्रमात्रभिमानतिरेकन्यग्भावितसंविदात्मस्वरूपताया उन्मग्नतात्मकः समावेशः। ई.प्र.वि.वि. भा. 1 पृ.7
  14. तेन मनोवागात्मकं यदविभक्तं संविच्छक्तेः, तदेव अर्पयता भक्तेन विश्वमर्पितं भगवति भवतीति। ततस्तु तन्नान्तरीकत्वादेव शरीरधनदारादीनामपि तत्र अर्पणं जायते इति पूजनहवनशिरोविमनाष्टांगप्रणिपातनादि तदनुमानहेतुतया उपचारात्प्रणाम इति व्यवह्रियते न मुख्यतया। वही- पृ.21-22
  15. तद्भावं तदास्वादलाभेन तदावेशवैवश्यं गतं मानसमेषामिति भक्तेः स्वरूपमुक्तम्। अलब्धतदास्वादस्यापि तु तत्र प्राप्तिग्रह श्रद्धेति। तदाहुः - ‘‘श्रद्धाफलं भक्तिरुक्ता तद्विना नासितुं घटः। वही- पृ.27
  16. ऐश्वर्यमयी महेश्वरसमावेशरूपा या प्रकृष्टा भक्तिः फलांगिभावभागिभवानीवल्लभभम्त्यन्तरविलक्षणा विवक्षिता सा लक्ष्मी शब्देन संपत्पदेन च समस्तेत्यस्य दास्यविशेषणतासूचनेन निर्दिष्टा। वही- पृ.28
  17. तंत्रालोक आ. 37/85
  18. दासधाम्नि विनियोजितोऽप्यहं, स्वेच्छयैव परमेश्वर त्वया। दर्शनेन न किमस्मि पात्रितः पादसंवहनकर्मणापि वा। शिवस्तोत्रावली- 13/10
  19. न घ्यायतो न जपतः स्याद्यस्याविधिपूर्वकम्। एकमेव शिवाभासस्तं नुमो भक्तिशालिनम्। वही- 1/1
  20. वही- 1/16
  21. वही 1/12
  22. वही- 1/16
  23. योगिभ्यो भक्तिभाजां यद् व्युत्थानेऽपि समाहिताः । वही- 1/17
  24. न योगो न तपो नार्चाक्रमः कोऽपि प्रणीयते। अमाये शिवमार्गेऽस्मिन् भक्तिरेका प्रशस्यते।। वही-1/18
  25. शिव इत्येकशब्दस्य जिह्वाग्रे तिष्ठतः सदा। समस्तविषयास्वादो भक्तेष्वेवास्ति कोऽप्यहो। वही- 1/20
  26. अणिमादिषु मोक्षान्तेष्वंगेष्वेव फलाभिधा। भवद्भक्तेर्विपक्वाया लताया इव केषुचित्। वही- 1/25
  27. शिवस्तोत्रावली- 13/10
  28. त्रिमलक्षालिनो ग्रन्थाः सन्ति तत्पारगास्तथा। योगिनः पण्डिताः स्वस्थास्त्वद्भक्ता एव तत्त्वतः।। वही- 15/01
  29. ध्यातमात्रमुपतिष्ठत एव त्वद्यपुर्वरद भक्तिधनानाम्। अप्यचिन्त्यमखिलाद्भुतचिन्ताकर्तृतां प्रति च ते विजयन्ते।। वही- 20/19
  30. भक्ति विमुख जो धरम ताहि अधरम करि गायो। जोग जग्य ब्रत दान सकल करि तुच्छ लखायो। भक्तमाल छप्पय-60
  31. एकल चिंता राषु अनंता, अउर तजहु सब आसा रे। प्रणवै नामा भए निहकामा, को ठाकुर को दासा रे। संतकाव्य- पृ.145 ले. श्री परशुराम चतुर्वेदी
  32. कबीर जिहि घटि प्रीत न प्रेम रस फुनि रसना नाहीं राम। ते नर आइ संसार में, उपजि खये बेकाम।। क.ग्र. साखी 17 पृ.9
  33. मन कर्म वचन न हरि भज्या, अंकुर बीज नसाई। क.ग्र. पृ. 244
  34. भक्ति नसैनी मुक्ति की संत चढ़ै सब धाय। साखी ग्रंथ भक्ति का अंग- 14
  35. कामी क्रोधी लालची इनसे भक्ति न होय। भक्ति करे कोई सूरमा जाति वरण कुल खोय।। सा.ग्र. भक्ति का अंग- 34
  36. एक ‘जुगति’ एकै मिलै, किंवा जोग कि भोग। इन दून्यूं फल पाइये, रामनाम सिधि जोग रे।। प्रेम भगति ऐसी कीजिए मुखि अमृत वरिषै चंद। आप ही आप विचारिए तब केता होइ अनंद रे।। क.ग्र. - पद 5 पृ.143
  37. मैमंता मन मारि रे नान्हा करि करि पीसि। तब सुख पावै सुन्दरी ब्रह्म झलक्कै सीसि।। वही- साखी 20, पृ. 52
  38. जदपि रह्या सकल घट पूरि। भाव विना अभिअंतरि दूरी।। क.ग्र. द्रुपदी रमैनी- 4 पृ. 392
  39. निरगुण राम निरगुण राम जपहु रे भाई। अविगत की गति लखी न जाई।। क.ग्र. पृ.104
  40. अविगत अपरम्पार ब्रह्म ग्यान रूप सब ठाम। वही- पृ.241
  41. जब तक भगति सकामता, तब तक निष्फल सेव। कहै कबीर वै क्यूं मिलै, निहकामी निज देव।। वही- पृ.19
  42. भक्त आप भगवान है, जानत नाहिं अयान।। साखी ग्रंथ- भक्ति का अंग- 55
  43. द्वैतभक्तरद्वैतभक्तेश्च शिवप्राप्तिर्भवत्येव किन्त्वद्वैतभक्तिः सद्यः समावेशमयी द्वैतभक्तिस्त्वतथात्वाच्छिवताकांक्षामयी। शिवस्तोत्रावली विवृति पृ.257
  44. कबीर राम मैं राम कहु, कहबै मांहि विवेक। एक अनेकै मिलि गया, एक समाना एक।। क.ग्र. पृ. 259
  45. तंत्रालोक- 13/117, पृ.486
  46. अनपेक्ष्य शिवे भक्तिः शक्तिपातोऽफलार्थिनाम। या फलार्थितया भक्तिः सा कर्माद्यमपेक्षते।। तोऽत्र स्यात्फले भेदों नापवर्गे त्वसौ तथा।। तं.आ. 13/117-118
  47. आरत ह्वै गुरू भक्ति भक्ति करु सब कारज सिद्ध होय । करम जाल भौजाल में भक्त फसै नहिं कोय।। साखी ग्रंथ, भक्ति का अंग-40
  48. दासातन हिरदै बसै, साधुन सों आधीन। कहैं कबिर सो दास है, प्रेम भक्ति लौ लीन।। साखी ग्रंथ, दासातन का अंग-11
  49. संतो भाई आई ग्यान की आंधी रे। भ्रम की टाटी सर्ब उड़ानी माया रहै न बांधी रे।। दुचिते की दोइ थूंनि गिरानी मोह वलेंडा टूटा। त्रिसना छांनि परी धर उपरि दूरमति भांडा फूटा।। क.ग्र. (पारसनाथ तिवारी) पद 52 पृ. 30

Publication Details

Published in : Volume 5 | Issue 6 | November-December 2022
Date of Publication : 2022-12-20
License:  This work is licensed under a Creative Commons Attribution 4.0 International License.
Page(s) : 89-98
Manuscript Number : GISRRJ225616
Publisher : Technoscience Academy

ISSN : 2582-0095

Cite This Article :

रवीन्द्र कुमार पंथ, "अभिनवगुप्त और कबीर के दर्शन में तुलनात्मक भक्ति-विमर्श ", Gyanshauryam, International Scientific Refereed Research Journal (GISRRJ), ISSN : 2582-0095, Volume 5, Issue 6, pp.89-98, November-December.2022
URL : https://gisrrj.com/GISRRJ225616

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