Manuscript Number : GISRRJ23666
शिवपुराण में वर्णित ब्रह्म का स्वरूप
Authors(1) :-शैलेश कुमार शुक्ल समाज में राज्य की उत्पत्ति लोक कल्याण और न्याय प्रदान करने के लिये हुई थी तथा इस दृष्टि से राजा और प्रशासनिक व्यवस्था की उत्पत्ति सुनिश्चित हुई। समाज में अराजकता की स्थिति मात्स्यन्याय कहलाती है। अराजकता के समय सबल लोग निर्बलों को यातनायें देते हैं, भावनाओं का कोई अर्थ रह जाता, नैतिकता की उपेक्षित होती है, असामाजिक लोग; बलपूर्वक दूसरों की सम्पत्तियों पर कब्जा करते हैं, अच्छे लोगों का दमन व बुरे लोगों की उन्नति होती है, अपने पराये की पहचान करना मुश्किल हो जाता है, कृषि व व्यापार का विनाश हो जाता है इत्यादि। ऐसे में जब न्याय और अन्याय में विभेद समाप्त हो जाता है तब कुछ ऐसी सर्वाेच्च शक्तियों की आवश्यकता होती है जो ऐसी स्थिति को नियन्त्रित कर सके। प्राचीन भारतीय विचारक राजनीति को दर्शन (नीति) शास्त्र का अंग मानते थे। अतएव प्राचीन भारतीय नीतिशास्त्रों में न केवल मानव-जीवन से सम्बन्धित अनेक तथ्यों व सिद्धान्तों की विवेचना की गयी है वरन् राज्य, उसकी उत्पत्ति, प्रकृति तथा मानव जीवन में राज्य की आवश्यकता आदि का भी वर्णन मिलता है। राज्य की उत्पत्ति से सम्बन्धित अनेक सिद्धान्त हैं- दैवी सिद्धान्त, सामाजिक अनुबन्ध सिद्धान्त, युद्धमूलक सिद्धान्त, शक्ति अथवा प्रभाव सिद्धान्त, ऐतिहासिक सिद्धान्त, विकास-मूलक सिद्धान्त। विकास मूलक सिद्धान्त राज्य की उत्पत्ति का वर्तमान समय में सर्वाधिक मान्य तथा सन्तोषजनक सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त के अनुसार राज्य संस्था क्रमिक विकास का परिणाम है। राज्य का आरम्भ मनुष्य जीवन के साथ-साथ अर्थात् परिवार के रूप में हुआ । वास्तव में राज्य का अंकुर संयुक्त कुटम्ब प्रणाली के रूप में उत्पन्न हुआ और शनैः शनै विकसित होता हुआ अपनी पूर्णता की अवस्था तक पहुंचा। प्राचीन भारत में राज्य ऋग्वैदिक काल में एक महत्वपूर्ण संस्था बन चुकी थी। यूरोपीय विचारकों की भाँति प्राचीन भारतीय नीतिशास्त्रकारों ने राज्य की उत्पत्ति से पूर्व नैतिक नियमों पर आधारित सामाजिक व्यवस्था का वर्णन किया है। परन्तु कालान्तर में अनेक दोषों का समावेश हो जाने के कारण, समाज में भयावह स्थिति उत्पन्न हो गयी तथा राज्य की उत्पत्ति सुनिश्चित हुई। प्राचीन भारतीय विचारकों ने राज्य की उत्पत्ति का स्पष्ट उल्लेख न करके राजा की उत्पत्ति को ही उसका आधार मान लिया है, उन्होंने राज्य एवं राजा की उत्पत्ति में कोई अन्तर नहीं किया।
ज्यों-ज्यों समाज विकसित हुआ, त्यों-त्यों पारिवारिक शासन के आधार पर राजकीय शासन का विकास हुआ। प्राचीन ग्रन्थों में इस राजकीय शासन के विकास के प्रथम चरण अर्थात राज्य अथवा राजा की उत्पत्ति से सम्बन्धित अनेक प्रकार के मत मिलते हैं। इन मतों अथवा सिद्धान्तों में यद्यपि किंवदन्तियाँ, दन्तकथायें एवं परम्परागत विश्वास काफी मात्रा में है परन्तु इनका विवरण ज्ञान एवं तर्क पर आश्रित है तथा अनेक तथ्यों की पुष्टि ऐतिहासिक घटनाओं से भी हो जाती है।
शैलेश कुमार शुक्ल विशपति, स्वयंमुच्च, वैराज्य, गहिपत्य, उत्क्रान्ति, आहवनीय, दक्षिणाग्नि, आमन्त्रण, स्तरीकरण।
Publication Details Published in : Volume 6 | Issue 6 | November-December 2023 Article Preview
शोधच्छात्र, संस्कृत विभाग, सी0एम0पी0 डिग्री काॅलेज, प्रयागराज (सम्बद्ध इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज)
Date of Publication : 2023-11-15
License: This work is licensed under a Creative Commons Attribution 4.0 International License.
Page(s) : 24-31
Manuscript Number : GISRRJ23666
Publisher : Technoscience Academy
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