Manuscript Number : GISRRJ247210
प्राचीन भारतीय संस्कृति में धर्म की अवधारणा
Authors(1) :-श्री लोकेश कुमार मीना
व्यास का कथन है कि ‘‘धारणात् धर्म इत्याहु “1 अर्थात् यह कहा जाता है कि धर्म वही है जिसे धारण किया जाता है। समाज में व्यक्ति जीवन प्रति जो धारणा बनाता है या धारणा करता है वही धर्म है। धर्म संस्कृत के ‘‘धृ’’ धातु से बना है जिसका अर्थ है जो धारण किया जाये। जब क्या धारण किया जाये स्पष्ट हो जाये तो वह धर्म बन जाता है। धर्म एक प्रकार से कर्त्तव्य के द्वारा कुछ समाजोपयोगी तथा आत्मोपयेगी बातों या गुणों को धारण करना कहा जा सकता है। जेम्स ने कहा है -’’धार्मिक जीवन में आत्म समर्पण और त्याग को प्रोत्साहित किया जाता है और अनावश्यक बातो को इसलिये त्यागा जाता है, जिससे सुख की वृद्धि हो सके। इस प्रकार उन बातो को सरल और सुविधा जनक बनाता है, जो जीवन की प्रत्येक दशा में आवश्यक है।’’2 सनातन धर्म में चार पुरुषार्थ स्वीकार किए गये हैं जिनमें धर्म प्रमुख है। तीन अन्य पुरुषार्थ ये हैं- अर्थ, काम और मोक्ष।
श्री लोकेश कुमार मीना
धारणात्, धार्मिकता, प्रोत्साहित, भावनात्मक, परम्परात्मक, सांसारिक, पारलौकिक, समायोजन, पारिभाषिक, अभूतपूर्व , वैयक्तिक, प्रभावशाली, पुरातात्विक, उपनिषद्, आरण्यक, ब्रह्माण्ड, अलौकिक, सार्वभौमिक। Publication Details Published in : Volume 7 | Issue 2 | March-April 2024 Article Preview
एम.ए.(इतिहास) NET, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर(राज.)
Date of Publication : 2024-04-05
License: This work is licensed under a Creative Commons Attribution 4.0 International License.
Page(s) : 47-56
Manuscript Number : GISRRJ247210
Publisher : Technoscience Academy
URL : https://gisrrj.com/GISRRJ247210