Manuscript Number : GISRRJ19213
संस्कृत भाषा में सामाजिक न्याय
Authors(1) :-डाॅ. लीना सक्करवाल सामाजिक न्याय की संकल्पना बहुत व्यापक शब्द है जिसके अन्तर्गत सामान्य हित के मानक से सम्बन्धित सब कुछ आ जाता है जो अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा से लेकर निर्धनता और निरक्षरता के मूल तक सब कुछ इंगित करता है। यह न केवल विधि के समक्ष समानता के सिद्धान्त का पालन करने और न्यायपालिका की स्वतंत्रता से सम्बन्धित है। इसका सम्बन्ध उन निहित स्वार्थों को समाप्त करने से है जो लोकहित को सिद्ध करने के मार्ग में और यथास्थिति बनाये रखने के पक्ष में है। सामाजिक न्याय की संकल्पना का सजीव चित्रण हमारे प्राचीन शास्त्रों व ग्रन्थों में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होता है जहाँ सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः1 को चरितार्थ करने के अनेकों उदाहरण प्राप्त होते है। प्रस्तुत शोध पत्र में संस्कृतवाङ्मय के विभिन्न ग्रन्थों में सामाजिक न्याय सङ्कल्पना की विभिन्न मन्त्रों, श्लोकों तथा वचनों से पुष्टि की गयी है और वर्तमान परिप्रेक्ष्य में उनकी प्रासङ्गिकता तथा उपादेयता को भी स्पष्ट किया गया है।
डाॅ. लीना सक्करवाल न्याय, स्वतंत्रता, सङ्कल्पना, संस्कृतवाङ्मय, परिप्रेक्ष्य, लोकहित, न्यायपालिका। Publication Details Published in : Volume 2 | Issue 1 | January-February 2019 Article Preview
सहायकाचार्या, शिक्षाशास्त्रीविभाग, राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान, (मानित विश्वविद्यालय), जयपुर परिसर, जयपुर, भारत
Date of Publication : 2019-01-01
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Page(s) : 17-25
Manuscript Number : GISRRJ19213
Publisher : Technoscience Academy
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