भारतीय दर्शन में परमार्थस्वरुपानुभूति

Authors(1) :-डॉ0 वन्दना द्विवेदी

साधक शास्त्राभ्यास एवं गुरुसपर्या के राहित्य से बौद्ध एवं पौरुष ज्ञानलाभ नहीं कर सकताए क्या उसको यथार्थ आत्मस्वरूप की अनुभूति कभई नहीं हो सकतीघ् जबकि जीव शिव का ही रुप माना जाता हैए तो एसी दशा में सीमित रुप से ही भले क्यों न होए आत्मप्रकाश तो रहता ही होगा। जब यह रहता है तो सीमित रुप में ही क्यों न होए अज्ञान;मलद्ध का नाश करता ही होगाघ् इस प्रकार भारतीय दर्शन का प्रतिवाद्य ही आत्मावलोकन एवं आत्मानुभूति है। सभी शास्त्र अपने ढंग से इसी के प्रतिपादन में सन्नद्ध हैं।

Authors and Affiliations

डॉ0 वन्दना द्विवेदी
असि0 प्रोफेसरए संस्कृतए विभागए नवयुग कन्या महाविद्यालयए लखनऊॉ उत्तर प्रदेशॉ भारत

भारतीय दर्शनॉ परमार्थस्वरुपानुभूतिॉ शास्त्राभ्यासॉ गुरुसपर्या।

  1. कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीवेषच्छतं समाः। ईशाण् उपण् मन्त्रण्2।
  2. ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः भण्गीण् 15ध्7।
  3. दुःखत्रयाभिघातात्.सांरण्य कारिका.
  4. तैत्तरीय आरण्यक. 1ध्36.37
  5. स्वाड्गरुपेषु भावेषु पत्युर्ज्ञानं क्रिया च या। ईण् प्रण् का 4ध्4।
  6. विंशतिशास्त्रटीका पृष्ट 2।

Publication Details

Published in : Volume 3 | Issue 3 | May-June 2020
Date of Publication : 2020-06-30
License:  This work is licensed under a Creative Commons Attribution 4.0 International License.
Page(s) : 53-57
Manuscript Number : GISRRJ203312
Publisher : Technoscience Academy

ISSN : 2582-0095

Cite This Article :

डॉ0 वन्दना द्विवेदी, "भारतीय दर्शन में परमार्थस्वरुपानुभूति", Gyanshauryam, International Scientific Refereed Research Journal (GISRRJ), ISSN : 2582-0095, Volume 3, Issue 3, pp.53-57, May-June.2020
URL : https://gisrrj.com/GISRRJ203312

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