जीवन दर्शन मूलभूत सिद्धान्त एवं आज के संदर्भ में उनकी प्रासंगिकता

Authors(1) :-डाॅ0 लखिन्द्र कुमार

भारतीय संस्कृति में दो परम्पराएँ अनादिकाल से चली आ रही है। 1. वैदिक एवं श्रमण परम्परा श्रमण-परम्परा भी अति प्राचीनकाल से चली आ रही है। इसके प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव हुए तथा 24वें एवं अन्तिम तीर्थकर महावीर। महावीर ज्ञानयोग थे। ज्ञानयोग की प्रवृति अन्तराभिमुख। ज्ञानयोग में रस की प्राप्ति ज्ञान से होती है। ज्ञान में रस रहते हुए कर्म करने पर भी कर्म का कर्ता नहीं कहा जाता। ज्ञान निवृतिरूप होता है। जैसे-जैसे निवृति की वृद्धि होती है, प्रवृति का स्वतः ह्नास होते जाता है। ऐसे ही आत्मसाधना कहा जाता है। महावीर ने कर्म की प्रवृतिमार्ग का त्याग करके निवृति मार्ग में आरूढ़ होने के लिए गृह-त्याग कर वन का आश्रय ग्रहण किया। क्योंकि निर्वाण-प्राप्ति का मार्ग दूसरा है भी नही। भोगी एवं योगी के मार्ग में अन्तर तो होगा ही। सम्भवतः इसी को लक्ष्य करके श्री कृष्ण ने अर्जुन से श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है

Authors and Affiliations

डाॅ0 लखिन्द्र कुमार
एम.ए.,पीएच.डी., (प्राकृत-जैनशास्त्र) बी.आर.ए. बिहार विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर (बिहार) भारत।

  1. श्रीमद्भगवद्गीता-अध्याय-2, श्लोक-69.
  2. श्रीमद्भगवद्गीता-अध्याय-4, श्लोक-13. चातुर्णव्यं नया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
  3. प्रवचनसार/गाथा सं0-100 न भवो भंगविहीणो भंगो वा णत्थि संभवविहीणो। उत्पादो वि य भंगो ण विणा धोत्वेण अत्थेण।।
  4. प्रवचनसार, गाथा 100 की अमृतचन्द्र-टीका।
  5. उत्पादद्रव्य ध्रौव्ययुक्तं सत्-तत्वार्थसूत्र 5/30.
  6. सवम्भूस्त्रोत, पदय-24. न सर्वथा नित्यायु दैत्यपैति न च क्रियाकारमत्र युक्तम। नैवासतो जन्म सतो न नाशो दीपस्तमः पुदगलभाव तोडस्ति।।
  7. प्रवचनसार-ज्ञानाधिकार गाथा-46-59. अष्टशती-कारिका जयधवल-प्रथम भाग पृ0 66.

Publication Details

Published in : Volume 3 | Issue 5 | September-October 2020
Date of Publication : 2020-09-30
License:  This work is licensed under a Creative Commons Attribution 4.0 International License.
Page(s) : 77-80
Manuscript Number : GISRRJ203516
Publisher : Technoscience Academy

ISSN : 2582-0095

Cite This Article :

डाॅ0 लखिन्द्र कुमार, "जीवन दर्शन मूलभूत सिद्धान्त एवं आज के संदर्भ में उनकी प्रासंगिकता", Gyanshauryam, International Scientific Refereed Research Journal (GISRRJ), ISSN : 2582-0095, Volume 3, Issue 5, pp.77-80, September-October.2020
URL : https://gisrrj.com/GISRRJ203516

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