Manuscript Number : GISRRJ20367
योगवासिष्ठ महारामायण में आत्मतत्त्व का विवेचन
Authors(2) :-डॉ0 जी.एल. पाटीदार, नन्दकिशोर प्रजापति श्रुति मन्त्रांश “अर्चत प्रार्चत प्रियमेधासो अर्चत” अर्थात् हे ! ज्ञान के प्रेमी लोगों परमात्मा की नित्य उपासना करों। परमात्मा की अनुभूति ज्ञानयोग एवं भक्तियोग से होती है, श्रुतिमहावाक्य भी है- “प्रज्ञानं ब्रह्म” वह ज्ञान ही ब्रह्म है। ज्ञान ही वह विद्या है, जो उस परमतत्त्व की प्राप्ति कराता है। मानव की सहज जिज्ञासा है कि वह नित्य चिन्तन से जीव, जगत् ओर आत्मा को समझे तथा समझाना अत्यंत आवश्यक भी है। यहाँ आत्मतत्त्व के स्वरूप को योगवासिष्ठ महारामायण की दृष्टी से जानने का प्रयास किया गया है, उस दिव्यतत्त्व की उपासना, लोक मंगल और आनंद ही परम प्रयोजन है। ज्ञान का विकास संवर्धन ही इस आलेख का परम उद्देश्य है।
डॉ0 जी.एल. पाटीदार संस्कृत, वाङ्मय, आत्मतत्त्व, योग, विद्या, वेद, उपनिषद्, वसिष्ठ, रामायण, ज्ञान, उपासना, विवेक, कान्तदर्शी, ब्रह्म। Publication Details Published in : Volume 3 | Issue 6 | November-December 2020 Article Preview
संस्कृत-विभाग, मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर (राज.), भारत
नन्दकिशोर प्रजापति
संस्कृत-विभाग, मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर (राज.), भारत
Date of Publication : 2020-12-30
License: This work is licensed under a Creative Commons Attribution 4.0 International License.
Page(s) : 30-39
Manuscript Number : GISRRJ20367
Publisher : Technoscience Academy
URL : https://gisrrj.com/GISRRJ20367